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साहस और प्रेरणा की मिसाल हैं सावित्रीबाई फुले की कविताएं

साहस और प्रेरणा की मिसाल हैं सावित्रीबाई फुले की कविताएं

मात्र 23 साल की उम्र में सावित्रीबाई फुले का पहला काव्य संग्रह ‘काव्य फुले’ आ गया था, जिसमें उन्होंने धर्म, धर्मशास्त्र, धार्मिक पाखंड़ो और कुरीतियों के खिलाफ जमकर लिखा। औरतों की सामाजिक स्थिति पर कविताएं लिखीं और उनकी बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार धर्म, जाति, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता पर कड़ा पर प्रहार किया। बता रही हैं अनिता भारतीसावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 – 10 मार्च, 1897) पर विशेष

यह जानकर आश्चर्य होता है कि 18वीं शताब्दी में भारत की पहली शिक्षिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रखर, निर्भीक, चेतना सम्पन्न, तर्कशील, दार्शनिक, स्त्रीवादी ख्याति प्राप्त लोकप्रिय कवयित्री अपनी पूरी प्रतिभा और ताकत के साथ उपस्थित होती हैं और किसी की उन पर निगाह भी नहीं जाती या फिर दूसरे शब्दों में कहूं तो उनके योगदान पर मौन धारण कर लिया जाता है। सवाल है इस मौन धारण का, अवहेलना और उपेक्षा करने का क्या कारण है? क्या इसका एकमात्र कारण उनका शूद्र तबके में जन्म लेना और दूसरे स्त्री होना माना जाए? सावित्रीबाई फुले का पूरा जीवन समाज के वंचित तबकों खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष और सहयोग में बीता। जोतीराव संग सावित्रीबाई फुले ने जब क्रूर पितृसत्ता व ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए, लड़कियों के लिए स्कूल खोलने से लेकर तात्कालीन समाज में व्याप्त तमाम दलित-शूद्र-स्त्री विरोधी सामाजिक, नैतिक और धार्मिक रूढ़ियों-आडंबरों-अंधविश्वास के खिलाफ मजबूती से बढ-चढकर डंके की चोट पर जंग लडने की ठानी, तब इस जंग में दुश्मन के खिलाफ लडाई का एक मजबूत हथियार बना उनका स्वयं रचित साहित्य जिसका उन्होंने प्रतिक्रियावादी ताकतों को कड़ा जबाब देने के लिए बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल किया। सावित्रीबाई फुले के साहित्य में उनकी कविताएं, पत्र, भाषण, लेख, पुस्तकें आदि शामिल है।सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन काल में दो काव्य पुस्तकों की रचना की, जिनमें उनका पहला ‘काव्य-फुले’ 1854 में तब छपा जब वे मात्र तेईस वर्ष की ही थीं। दूसरा काव्य-संग्रह ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ 1891 में आया, जिसे सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनसाथी जोतीराव फुले की परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद उनकी जीवनी रूप में लिखा था।

 

अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद अपने कट्टरतम रूप में चरम पर था। उस समय सवर्ण हिन्दू समाज और उसके ठेकेदारों द्वारा शूद्र, दलितों और स्त्रियों पर किए जा रहे अत्याचार-उत्पीडन-शोषण की कोई सीमा नहीं थी। डॉ. आंबेडकर ने उस समय की हालत का वर्णन अपनी पुस्तक ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में करते हुए कहा है– “पेशेवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नही थी जिस पर कोई सवर्ण हिन्दू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे, ताकि हिन्दू इन्हें भूल से ना छू लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाडू बाँधकर चलें, ताकि इनके पैरों के चिन्ह झाडू से मिट जाएं और कोई हिन्दू इनके पद चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएं, अछूत अपने गले में हांडी बाँधकर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़ें हुए अछूत के थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा।” 

 

सन् 1818 में पेशवाराज के खात्मे के करीब 13 साल बाद सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिला के एक छोटे से गांव नायगांव में हुआ। मात्र नौ साल की उम्र में ग्यारह साल के जोतीराव संग ब्याह दी गई। केवल सत्रह वर्ष की उम्र में ही सावित्रीबाई ने बच्चियों के एक स्कूल की अध्यापिका और प्रधानाचार्या दोनों की भूमिका को सवर्ण समाज के द्वारा उत्पन्न अड़चनों से लड़ते हुए बडी ही लगन, विश्वास और सहजता से निभाया। समता, बंधुता, मैत्री और न्याय पूर्ण समाज की ल़डाई के लिए, सामाजिक क्रांति को आगे बढाने के लिए सावित्राबाई फुले ने साहित्य की रचना की। आज भी यह बात बहुत कम लोग जानते है कि वे एक सजग, तर्कशील, भावप्राण, जुझारू क्रांतिकारी कवयित्री थीं। मात्र 23 साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह ‘काव्य फुले’ आ गया था, जिसमें उन्होंने धर्म, धर्मशास्त्र, धार्मिक पाखंड़ो और कुरीतियों के खिलाफ जमकर लिखा। औरतों की सामाजिक स्थिति पर कविताएं लिखीं और उनकी बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता पर कड़ा पर प्रहार किया। सावित्रीबाई फुले अपनी एक कविता में दलितों औऱ बहुजनों को समाज में बैठी अज्ञानता को पहचान कर उसे पकड़कर कुचल-कुचल कर मारने के लिए कहती हैं, क्योंकि यह अज्ञानता यानी अशिक्षा ही दलित बहुजन और स्त्री समाज की दुश्मन है, जिसे जानबूझकर सोची-समझी साजिश के तहत वंचित समूह को ज्ञान से दूर रखा गया है।दो हजार साल पुराना

 

शूद्रों से जुड़ा है एक दुख

 

ब्राह्मणों की सेवा की आज्ञा देकर

 

झूठे मक्कार स्वयं घोषित

 

भू देवताओं ने पछाड़ा है। (वही, पृष्ठ संख्या 14)

 

सावित्रीबाई फुले कहती हैं कि ब्राह्मणों के ग्रंथ मनुस्मृति को दलित, शूद्र और स्त्री की दुर्दशा की जिम्मेदार हैं, इसलिए वे मनुस्मृति के रचयिता मनु को इस बात के आड़े हाथ लेती हैं, जिसमें यह कहा गया है कि जो हल चलाता है, जो खेती करता है वह मूर्ख है। दरअसल सावित्रीबाई फुले इस बात में निहित षडयंत्र को जानती हैं। वह जानती हैं कि यदि शुद्र और दलित खेती करेंगे तो संपन्न होंगे। यदि वे संपन्न होंगे तो खुशहाली भरा जीवन व्यतीत करेंगे, जिससे वे ब्राह्मणों की धर्माज्ञा को मानना बंद कर देंगे। इसलिए मनुस्मृति रचयिता को खरी-खरी सुनाते हुए वह कहती हैं– 

 

हल जो चलावे, खेती जी करे

 

वे मूर्ख होते है, कहे मनु

 

मत करो खेती कहे मनुस्मृति

 

धर्माज्ञा की करे घोषणा, ब्राह्मणों की (वही, पृष्ठ संख्या 16) वह विद्या को श्रेष्ठ धन बताते हुए कहती हैं–

 

विद्या ही सव्रश्रेष्ठ धन है

 

सभी धन-दौलत से

 

जिसके पास है ज्ञान का भंडार 

 

है वो ज्ञानी जनता की नज़रो में।

 

अपने एक अन्य बालगीत में बच्चों को समय का सदुपयोग करने की प्रेरणा देते हुए कहती हैं–

 

काम जो आज करना है, उसे करें तत्काल

 

दोपहर में जो कार्य करना है, उसे अभी कर लो

 

पलभर के बाद का सारा कार्य इसी पल कर लो। 

 

काम पूरा हुआ या नही

 

न पूछे मौत आने से पूर्व कभी।नही अब वक्त गंवाना है

 

ज्ञान विद्या प्राप्त करें, चलो अब संकल्प करें

 

मूढ अज्ञानता, गरीबी गुलामी की जंजीरों को

 

चलो खत्म करें।

 

सावित्रीबाई फुले बेहद प्रकृति प्रेमी थी। ‘काव्य फुले’ में उनकी कई सारी कविताएं प्रकृति, प्रकृति के उपहार पुष्प और प्रकृति का मनुष्य को दान आदि विषयों पर लिखी गई है। तरह-तरह के फूल, तितलियाँ, भँवरे, आदि का जिक्र वे जीवन दर्शन के साथ जोड़कर करती हैं। प्रकृति के अनोखे उपहार हमारे चारों ओर खिल रहे तरह-तरह के पुष्प जिनका कवयित्री सावित्रीबाई फुले अपनी कल्पना के सहारे उनकी सुंदरता, मादकता और मोहकता का वर्णन करती हैं, वह सच में बहुत प्रभावित करने वाला है। पीली चम्पा (चाफा) पुष्प के बारे में लिखते हुए वह कहती हैं–उल्लूओं की हमेशा इच्छा होती है कि शूद्र और महार दीन दलित अज्ञानियों की तरह जीवन जिए। मुर्गा को टोकरी से ढकने पर भी वह बांग देना नही छोडता। अत कोई कितना कोशिश करे एक दिन शूद्र-महार जनता अपना शिक्षा का अधिकार पाकर ही रहेगी–

 

सच कही हो तुम, छटा अंधकार

 

शूद्रादि महार जाग गये

 

दीन दलित अज्ञानी रहकर दुख सहे

 

पशु भांति जिए यह उल्लुओं की है इच्छा

 

मुर्गा टोकरी से ढका रखने पर भी

 

देता है बांग

 

और जनता को बताने, सुबह होने की बात

 

कविता के अन्त में सावित्री घोषणा करती है–

 

शूद्र जनता के क्षितिज, ज्योतिबा सूरज

 

तेज से युक्त, अपूर्व, उदय हुआ।

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